रविवार, 10 अक्तूबर 2010

ये वो सहर तो नहीं

हिंदी कथा जगत में अपना ख़ास मुकाम बना चुके युवा रचनाकार पंकज सुबीर का प्रथम उपन्यास--ये वो सहर तो नहीं --ज्ञानपीठ से आ गया है.इस उपन्यास के लिए पंकज जी को ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार प्राप्त हुआ. साहित्य जगत से जुड़े लोग तो पढेंगे ही लेकिन पत्रकार साथियों तथा आई.ए.एस अधिकारियों को इसे जरूर पढना चाहिए.पंकज भाई ने व्यंग्य का तड़का लगते हुए शिवपालगंज की याद दिला दी.देखें किस खूबी से एक शहर नहीं देश के अधिकांश हिस्से की बात कही है--विरोध यहाँ की जनता कभी भी नहीं करती है.नल में पानी नहीं आता है तो ट्यूबवेल लगवा लेती है.वो भी सूख जाता है तो हेंडपंप से पानी भर लाती है.हेंडपंप भी नहीं मिलता तो टेंकर से पानी खरीद कर डलवा लेती है लेकिन कभी किसी से ये नहीं पूछती कि हुजूर,हमारे हिस्से का पानी गया कहाँ ?


अधिकाँश लोग पीपली लाइव को याद करते हुए इस बात से सहमत होंगे... ये नए ज़माने की इलेक्ट्रोनिक मीडिया की पत्रकारिता है.उसमें आप नहीं काम करते,आपका कैमरा करता है.प्रधानमंत्री सड़क योजना के अंतर्गत बनी किसी भी सड़क की वीडिओ शूटिंग कर लाये.सड़क के गड्ढे और उसकी दुर्दशा पर चार ग्रामीणों की बाईट ले ली.उसके बाद वहीं खड़े होकर एक पीटूसी किया और वर्शन लेने पहुँच गए सम्बन्धित अधिकारी के पास ! यह जो सड़क बनने के कुछ ही दिनों बाद इतनी ख़राब हो गयी,इसको लेकर आप क्या एक्शन ले रहे हैं.बातों ही बातों में उस अधिकारी को वीडिओ फूटेज दिखा दिए...जैसे ही आप अधिकारी के पास से उठेंगे वह तुरंत ठेकेदार को फोन लगाकर सब कुछ बता देगा.उसके बाद होगा यह कि वह ग्रामीण,वह सड़क टीवी के पर्दे पर आने की हसरत दिल में लिए ही रह जाएँगे.चैनल पत्रकार का सड़क के गड्ढे देखने का नजरिया क्रांतिकारी रूप से बदल चुका होगा.

पंकज जी ने सीधे सपाट शब्दों में सच्चाई बयां कर दी...इस समय तक प्रदेश स्तर पर ही करीब ३० समाचार चैनल कार्य कर रहे थे.कुछ तो ऐसे थे कि जिनके कैमरामेन और संवाददाता चैनल का लोगो लगे माइक के साथ फील्ड में तो खूब दिखाई देते थे,लेकिन इन समाचार चैनलों को आजतक किसी ने टीवी पर नहीं देखा था....इन समाचार चैनलों ने बड़े स्तर पर प्रदेश भर में अपने संवाददाताओं की नियुक्ति कर रखी थी.नियुक्ति के लिए दो शर्तें थी.पहली तो यह कि संवाददाता के पास अपना स्वयं का कैमरा तथा कैमरामेन हो.दूसरी महत्वपूर्ण शर्त यह थी कि संवाददाता को हर माह दस हज़ार रुपये के विज्ञापन अपने चैनल को देने होते थे.इसमें से भी विज्ञापन शब्द हटा दें तो दस हज़ार रुपये हर माह चैनल के ऑफिस में जमा करवाने होते थे.प्रदेश के कई आबकारी ठेकेदारों,माफियाओं,नेताओं ने इसी स्कीम के तहत किसी न किसी चैनल की आईडी ले रखी थी.

13 टिप्‍पणियां:

  1. गुरू जी को जन्मदिन की शुभकामनाएं तथा आपको इस आलेख हेतु धन्यवाद...!!

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  2. ये वो सहर तो नहीं वाकई मौजूदा हालात पर कही गयी बात है , जिसमे पुराने साम्राज्य और आज के प्रजातंत्र को दर्शाया गया है की दोनों में कुछ खास फर्क नहीं है ! मैं तो कहता हूँ इस प्रजातान्त्ररिक देश में सभी को यह उपन्यास पढनी चाहिए ! आपने खूबसूरती से इसके बारे में लिखा है आपको ढेरो बधाई और गुरु देव को उनके जन्म दिन विशेस के लिए ढेरो मुबारकवाद ...


    अर्श

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  3. धन्‍यवाद महेश भाई आपने तो जैसे पूरे उपन्‍यास की आत्‍मा को निकाल कर आलेख में रख दिया है । लेकिन ये क्‍या आपका यहां लेखन कुछ कम होता है । जुलाई के पहले लेख के बाद दूसरा लेख अब अक्‍टूबर में । नियमित ब्‍लाग लेखन करें ।

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  4. यह मनन-चिंतन का विषय है कि स्‍वतंत्रता प्राप्‍त कर हमने क्‍या पाया, क्‍या हम एक सच्‍चा जनतंत्र कायम कर सके? अंतर कहॉं है, लाट साहब आज भी हैं, राय बहादुर भी हैं और राय साहब भी, जनता कहॉं है इस जनतंत्र में। गॉंधी मूवी देखकर कम से कम एक अहसास तो होता है कि मीडिया उस समय प्रतिबद्ध था। आज मीडिया निठारी कांड को उछालता है, कल उसकी तरफ तभी झॉंकता है जब टीआपी बढने की संभावना हो। 'हम सबसे पहले खबर लाये' का नारा लिये समाचार कम दिखाता है नारा अधिक लगाता है।
    आज भी अंधकार उतना ही है बल्कि बढ गया है तो यह कहना गलत तो नहीं कि 'ये वो सहर तो नहीं'।

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  5. आदरणीय पंकज जी को "ये वो सहर तो नहीं" के प्रकाशन और ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार की उपलब्धि पर दिल से ढेरो बधाई....

    regards

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  6. "ये वो सहर तो नहीं.........", हम सभी को सच से रूबरू करवाता एक आइना है और कई लोगों को आइना दिखलाता है.
    उपन्यास की कहन शैली के तो क्या कहने, जिन दो काल-खण्डों में बात की गयी है, वो दिखता है कि देखिये कुछ भी तो नहीं बदला सब कुछ वैसा का वैसा ही है.

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  7. अभी तो पढ़ी नहीं..बस ड्यू है.

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  8. समीक्षा ने उपन्यास पढने की उत्सुकता जगा दी है...सार्थक समीक्षा प्रस्तुत करने के लिए आभार!

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  9. "YE VO SAHAR TO NAHIN " BAHUT CHARCHIT HO RAHA HAI . DELHI KE EK LEKHAK MITR NE MUJHE PADHNE
    KEE ZORDAAR SIFAARISH KEE HAI . MANGWAKAR AVASHYA HEE PADHOONGA .

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  10. "ये वो सहर तो नहीं" पढते वक्त मुझे एक बार नहीं कई बार पुस्तक के मुख्य पृष्ठ पर पंकज जी का नाम पढ़ कर आश्वश्त होना पड़ा कारण ये के बार बार मुझे ऐसा लगता जैसे मैं हिंदी के लब्ध प्रतिष्ठित व्यंगकारों जैसे परसाई जी, शरद जोशी जी, श्री लाल शुक्ल जी या फिर ज्ञान चतुर्वेदी जी को पढ़ रहा हूँ.

    लेखन की इतनी खूबियां एक ही उपन्यास में समेटना बहुत आश्चर्य का विषय है और ये पंकज जी के गहन अध्यन और हमारे समाज में घट रही गतिविधियों पर उनकी गहरी पकड़ का परिचायक है. उन्होंने जिस अंदाज़ से पात्रों का चरित्र चित्रण किया है उसे पढ़ कर लगता है जैसे हम उन्हें जानते हैं और वो हमारे बीच के ही हैं.

    लालफीता शाही के पीछे चल रही राजनीति की बखिया भी कमाल के अंदाज़ में उधेडी है.

    दो काल में सामानांतर चल रही कहानियों में तालमेल बिठाना कोई हंसी खेल नहीं, पंकज जी का ये विलक्षण लेखन उन्हें अपने समकक्ष लेखकों से बहुत आगे ले जाता है.

    मेरी राय में ये पुस्तक आ.इ.एस.के पाठ्यक्रम का हिस्सा होनी चाहिए.

    उन्हें इस अद्भुत लेखन के लिए ढेरों बधाई.

    नीरज

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  11. सार्थक जानकारी देती पोस्ट ,धन्यवाद!

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