शनिवार, 27 नवंबर 2010

सत्ता पक्ष से नजदीकी अलग चीज है लेकिन पाठकों के प्रति ईमानदारी भी कुछ होती है....

आज ही खुशवंत सिंह जी का लेख पढ़ा.सिद्धार्थ शंकर रे को याद करने के साथ ही उन्होंने कुछ बातें आपातकाल के बारे में लिखी है.....आप भी पढ़ें...."उसी दौरान श्रीमती गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी और विपक्ष के सभी नेताओं को जेल में डाल दिया।
लोकतांत्रिक तकाजों को निलंबित करने के लिए जरूरी कानूनी मसौदा तैयार करने में सिद्धार्थ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जयप्रकाश नारायण सहित विपक्ष के नेता विरोध प्रदर्शन के लिए लोकतांत्रिक सीमाओं को लांघ चुके थे। देश की अखंडता दांव पर थी।"
खुशवंत जी की सहानुभूति श्रीमती गांधी और रे के साथ दिखाई देती है और वे आपातकाल के समर्थक नज़र आते हैं. वे ऐसे कानून का मसौदा बनाने में रे की महत्वपूर्ण भूमिका का जिक्र करते हैं जो लोकतंत्र पर प्रहार करने वाला था.इस  कार्य के लिए कहीं भी नकारात्मक टिप्पणी वे जरूरी नहीं समझते.वहीँ वे जेपी और विपक्ष के अन्य नेताओं को लोकतान्त्रिक सीमाएं लांघने का दोषी ठहराते हैं और उनके विरोध को देश की अखंडता के लिए खतरा बताते हैं.
जिस आपातकाल के विरोध में अखबार काले पन्ने निकाल रहे थे,जिसे लोकतंत्र पर आक्रमण समझा जाता है और जिसके कारण श्रीमती गाँधी की बुरी तरह हार हुई....जो आम जनता की संवेदना और भावनाओं से जुड़ा मुद्दा समझा जाता है.उस पर एक वरिष्ठ पत्रकार की टिप्पणी व्यक्तिगत आग्रह-दुराग्रह से भरी नज़र आती है..कहीं से भी इसे तटस्थ नजरिया नहीं माना जा सकता...वे आगे लिखते हैं ...
"जनता द्वारा चुने गए विधायकों को विधानसभा जाने से रोका जा रहा था, लोगों से कहा जा रहा था कि वे टैक्स चुकाना बंद कर दें, पुलिस और लोगों को विद्रोह के लिए उकसाया जा रहा था। अराजकता के हालात थे। हड़तालें हो रही थीं। स्कूल-कॉलेज बंद थे। उग्र जुलूस कारों के शीशे और दुकानों की खिड़कियां तोड़कर आगे बढ़े चले जा रहे थे।

लेकिन आपातकाल लगाए जाने के बाद रातोंरात सब शांत हो गया। कानून व्यवस्था फिर बहाल हो गई। स्कूल-कॉलेज खुल गए। ट्रेनें समय से दौड़ने लगीं। सभी ने राहत की सांस ली।"
आन्दोलनों को कुचलने के लिए ही आपातकाल का प्रयोग किया गया और नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया..इसे खुशवंत जी रातोंरात सब शांत होना कहते हैं.."सभी ने राहत की सांस ली"लिखते हुए वे यह भूल जाते हैं कि "सभी" का अर्थ आम जनता कतई नहीं थी..हालाँकि वे एक वाक्य आपातकाल के विरोध में भी लिखते हैं लेकिन किस तरह...देखिये."लेकिन जब श्रीमती गांधी और उनके परिवार के सदस्यों खासतौर पर मेनका गांधी, उनके माता-पिता और उनके पति द्वारा व्यक्तिगत हिसाब बराबर करने के लिए आपातकाल का दुरुपयोग किया जाने लगा, तब उसकी छवि खराब हुई। सिद्धार्थ भी मुझसे सहमत थे।"
आपातकाल के दुरूपयोग से ख़राब उसकी छवि के बहाने उनका निशाना मेनका गाँधी और उनके परिजन ज्यादा दिखाई देते हैं..वे क्यों संजय गाँधी का सीधा नाम दुरूपयोग करने वालों में नहीं लेते,देखें वे लिखते हैं
  "जब मुझे द इलस्ट्रेटेड वीकली से निकाल बाहर कर दिया गया, तब संजय गांधी मेरे लिए एक युवा मददगार बनकर आए।

उन्होंने राज्यसभा सदस्य के रूप में मेरा मनोनयन किया और मुझे द हिंदुस्तान टाइम्स का संपादक बना दिया"
 ये पढ़कर खुशवंत जी  की छवि एक गैरतमंद पत्रकार की कतई नहीं बनती..मुझे याद है दीवान बीरेन्द्र नाथ के लेख जिसमें उन्होंने जिक्र किया है कि श्रीमती गाँधी उनकी बहुत इज्ज़त करती थीं,उनके सम्बन्ध भी मधुर थे लेकिन आपातकाल को लेकर,उनके तानाशाही रवैये को लेकर उन्होंने कोई लिहाज़ नहीं किया और अपना विरोध प्रकट किया..सत्ता पक्ष से नजदीकी,सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध अलग चीज है लेकिन अपना कर्त्तव्य,पाठकों के प्रति ईमानदारी,देश की आम जनता के लिए प्रतिबद्ध ता भी कुछ होती है....   



   

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

पाखी के नवम्बर अंक में प्रकाशित विमल कुमार जी की एक कविता विशेषकर फेसबुक दोस्तों के लिए

                                               फेसबुक का नाम बदल दो

                                                 फेसबुक पर
                                                 सबकी तस्वीरें थीं
                                                 पर उस बुढ़िया की नहीं थी
                                                 जो सड़क के किनारे
                                                 भीख माँग रही थी
                                                 नहीं थी उस बच्चे की तस्वीर
                                                 जो एक होटल में अभी भी काम करता था
                                                 शिक्षा का अधिकार लागू हो जाने के बाद
                                                 तस्वीरें नहीं थीं
                                                 आत्महत्या करते किसानों की
                                                 फेसबुक
                                                 अपने समय की
                                                 एक झूठी किताब थी
                                                 किताबें जो सच नहीं कहतीं 
                                                 वे कहीं से किताबें नहीं कही जा सकतीं
                                                बेहतर है,
                                                तुम फेसबुक का नाम बदल दो.

  http://www.facebook.com/home.php?#!/profile.php?id=100000821644237

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

"ye vo sahar to nahin"

सभी को दशहरे की ढेर सारी शुभकामनाएँ ...पंकज जी के उपन्यास "ये वो सहर तो नहीं" पर कुछ और लिखना था लेकिन बहुत व्यस्तता रही..जल्दी ही आगे लिखूंगा...वैसे एक बात मन में आई...मैंने पहले लिखा है कि सभी आई.ए.एस. और पत्रकार साथियों को ये उपन्यास पढना चाहिए..जब आई.ए.एस.साथी ये उपन्यास पढेंगे तो जनरल ह्यूरोज से अपनी तुलना स्वीकार नहीं कर सकेंगे.निश्चित रूप से इसे अतिरंजना समझा जाएगा.वैसे भी मानवेन्द्र बगैर किसी आधार के कार्रवाई नहीं करता है,भले ही प्रताड़ना के लिए बहाना ढूंढता हो लेकिन नियम का उल्लंघन पाए जाने पर ही अपना रंग दिखाता है.जैसे अपना स्वयं का मकान होने के बावजूद पत्रकार द्वारा सरकारी आवास का इस्तेमाल और वह भी वकालत के पेशे के लिए न कि पत्रकारिता के लिए. इस तथ्य के कारण ही जिलाधीश की हिम्मत कार्रवाई के लिए होती है.. जब जनरल ह्यूरोज से जिलाधीश की तुलना की गयी है तो स्वाभाविक है कि पीड़ित विद्रोही सिपाहियों के समकक्ष पीड़ित पत्रकार को खड़ा किया गया है...लेकिन सरोकारों को देखें तो ये पत्रकार न तो विद्रोही है और न ही सच्चाई का समर्थक ..अन्याय का विरोधी तो कतई नहीं...उसकी लड़ाई व्यक्तिगत है,बदले की भावना से भरी है.वह अपनी लड़ाई को समाज की लड़ाई में बदलने की कुवत भी नहीं रखता है..क्योंकि वह स्वार्थी है,वह सिद्धांतों को परे रखने वालों में से है..कम से कम उपन्यास में किये गए चरित्र चित्रण से तो यही लगता है इसलिए वह सहानुभूति का पात्र भी नहीं बन पाता.. 
फिर भी दो विभिन्न कालखंडों को समानांतर रखने का कौशल पंकज सुबीर ने साधा है..यह इस मायने में भी प्रशंसनीय है कि पंकज जी ने स्वयं कमलेश्वर की "राजा निरबंसिया" का जिक्र किया है जो एक कहानी है और उसमें इसी तरह दो अलग कालखंडों की कथा एक साथ चलती है..कहानी होने के कारण ये अल्पावधि में पढ़ी जा सकने वाली रचना है और निरंतरता टूटने का कोई डर नहीं रहता जबकि पंकज जी ने उपन्यास में ऐसा प्रयोग कर किंचित कठिन कार्य किया है..यही वजह है कि पत्रकार और जिलाधीश के टकराव की मामूली-सी कथा इतिहास को समानांतर रखने के कारण असाधारण बन गयी..असाधारण इसलिए कि कमलेश्वर जी ने राजा निरबंसिया और रानी को कम स्पेस दिया है और वास्तव में वह कहानी जगपति और चंदा की है,यही उस कहानी  की जरुरत थी जबकि पंकज जी ने १८५७ की क्रांति को पर्याप्त जगह दी है और सिर्फ १८५७ की कहानी (पंकज जी के अनुसार इतिहास में कहीं नहीं पाई जाती)को पढ़ा जाए तो वह एक रोचक कथा होगी.

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

ये वो सहर तो नहीं

हिंदी कथा जगत में अपना ख़ास मुकाम बना चुके युवा रचनाकार पंकज सुबीर का प्रथम उपन्यास--ये वो सहर तो नहीं --ज्ञानपीठ से आ गया है.इस उपन्यास के लिए पंकज जी को ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार प्राप्त हुआ. साहित्य जगत से जुड़े लोग तो पढेंगे ही लेकिन पत्रकार साथियों तथा आई.ए.एस अधिकारियों को इसे जरूर पढना चाहिए.पंकज भाई ने व्यंग्य का तड़का लगते हुए शिवपालगंज की याद दिला दी.देखें किस खूबी से एक शहर नहीं देश के अधिकांश हिस्से की बात कही है--विरोध यहाँ की जनता कभी भी नहीं करती है.नल में पानी नहीं आता है तो ट्यूबवेल लगवा लेती है.वो भी सूख जाता है तो हेंडपंप से पानी भर लाती है.हेंडपंप भी नहीं मिलता तो टेंकर से पानी खरीद कर डलवा लेती है लेकिन कभी किसी से ये नहीं पूछती कि हुजूर,हमारे हिस्से का पानी गया कहाँ ?


अधिकाँश लोग पीपली लाइव को याद करते हुए इस बात से सहमत होंगे... ये नए ज़माने की इलेक्ट्रोनिक मीडिया की पत्रकारिता है.उसमें आप नहीं काम करते,आपका कैमरा करता है.प्रधानमंत्री सड़क योजना के अंतर्गत बनी किसी भी सड़क की वीडिओ शूटिंग कर लाये.सड़क के गड्ढे और उसकी दुर्दशा पर चार ग्रामीणों की बाईट ले ली.उसके बाद वहीं खड़े होकर एक पीटूसी किया और वर्शन लेने पहुँच गए सम्बन्धित अधिकारी के पास ! यह जो सड़क बनने के कुछ ही दिनों बाद इतनी ख़राब हो गयी,इसको लेकर आप क्या एक्शन ले रहे हैं.बातों ही बातों में उस अधिकारी को वीडिओ फूटेज दिखा दिए...जैसे ही आप अधिकारी के पास से उठेंगे वह तुरंत ठेकेदार को फोन लगाकर सब कुछ बता देगा.उसके बाद होगा यह कि वह ग्रामीण,वह सड़क टीवी के पर्दे पर आने की हसरत दिल में लिए ही रह जाएँगे.चैनल पत्रकार का सड़क के गड्ढे देखने का नजरिया क्रांतिकारी रूप से बदल चुका होगा.

पंकज जी ने सीधे सपाट शब्दों में सच्चाई बयां कर दी...इस समय तक प्रदेश स्तर पर ही करीब ३० समाचार चैनल कार्य कर रहे थे.कुछ तो ऐसे थे कि जिनके कैमरामेन और संवाददाता चैनल का लोगो लगे माइक के साथ फील्ड में तो खूब दिखाई देते थे,लेकिन इन समाचार चैनलों को आजतक किसी ने टीवी पर नहीं देखा था....इन समाचार चैनलों ने बड़े स्तर पर प्रदेश भर में अपने संवाददाताओं की नियुक्ति कर रखी थी.नियुक्ति के लिए दो शर्तें थी.पहली तो यह कि संवाददाता के पास अपना स्वयं का कैमरा तथा कैमरामेन हो.दूसरी महत्वपूर्ण शर्त यह थी कि संवाददाता को हर माह दस हज़ार रुपये के विज्ञापन अपने चैनल को देने होते थे.इसमें से भी विज्ञापन शब्द हटा दें तो दस हज़ार रुपये हर माह चैनल के ऑफिस में जमा करवाने होते थे.प्रदेश के कई आबकारी ठेकेदारों,माफियाओं,नेताओं ने इसी स्कीम के तहत किसी न किसी चैनल की आईडी ले रखी थी.

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

सदैव छलनी किया है मुझे व्यवस्था के क्रूर पंजों ने .....