रविवार, 17 अक्तूबर 2010

"ye vo sahar to nahin"

सभी को दशहरे की ढेर सारी शुभकामनाएँ ...पंकज जी के उपन्यास "ये वो सहर तो नहीं" पर कुछ और लिखना था लेकिन बहुत व्यस्तता रही..जल्दी ही आगे लिखूंगा...वैसे एक बात मन में आई...मैंने पहले लिखा है कि सभी आई.ए.एस. और पत्रकार साथियों को ये उपन्यास पढना चाहिए..जब आई.ए.एस.साथी ये उपन्यास पढेंगे तो जनरल ह्यूरोज से अपनी तुलना स्वीकार नहीं कर सकेंगे.निश्चित रूप से इसे अतिरंजना समझा जाएगा.वैसे भी मानवेन्द्र बगैर किसी आधार के कार्रवाई नहीं करता है,भले ही प्रताड़ना के लिए बहाना ढूंढता हो लेकिन नियम का उल्लंघन पाए जाने पर ही अपना रंग दिखाता है.जैसे अपना स्वयं का मकान होने के बावजूद पत्रकार द्वारा सरकारी आवास का इस्तेमाल और वह भी वकालत के पेशे के लिए न कि पत्रकारिता के लिए. इस तथ्य के कारण ही जिलाधीश की हिम्मत कार्रवाई के लिए होती है.. जब जनरल ह्यूरोज से जिलाधीश की तुलना की गयी है तो स्वाभाविक है कि पीड़ित विद्रोही सिपाहियों के समकक्ष पीड़ित पत्रकार को खड़ा किया गया है...लेकिन सरोकारों को देखें तो ये पत्रकार न तो विद्रोही है और न ही सच्चाई का समर्थक ..अन्याय का विरोधी तो कतई नहीं...उसकी लड़ाई व्यक्तिगत है,बदले की भावना से भरी है.वह अपनी लड़ाई को समाज की लड़ाई में बदलने की कुवत भी नहीं रखता है..क्योंकि वह स्वार्थी है,वह सिद्धांतों को परे रखने वालों में से है..कम से कम उपन्यास में किये गए चरित्र चित्रण से तो यही लगता है इसलिए वह सहानुभूति का पात्र भी नहीं बन पाता.. 
फिर भी दो विभिन्न कालखंडों को समानांतर रखने का कौशल पंकज सुबीर ने साधा है..यह इस मायने में भी प्रशंसनीय है कि पंकज जी ने स्वयं कमलेश्वर की "राजा निरबंसिया" का जिक्र किया है जो एक कहानी है और उसमें इसी तरह दो अलग कालखंडों की कथा एक साथ चलती है..कहानी होने के कारण ये अल्पावधि में पढ़ी जा सकने वाली रचना है और निरंतरता टूटने का कोई डर नहीं रहता जबकि पंकज जी ने उपन्यास में ऐसा प्रयोग कर किंचित कठिन कार्य किया है..यही वजह है कि पत्रकार और जिलाधीश के टकराव की मामूली-सी कथा इतिहास को समानांतर रखने के कारण असाधारण बन गयी..असाधारण इसलिए कि कमलेश्वर जी ने राजा निरबंसिया और रानी को कम स्पेस दिया है और वास्तव में वह कहानी जगपति और चंदा की है,यही उस कहानी  की जरुरत थी जबकि पंकज जी ने १८५७ की क्रांति को पर्याप्त जगह दी है और सिर्फ १८५७ की कहानी (पंकज जी के अनुसार इतिहास में कहीं नहीं पाई जाती)को पढ़ा जाए तो वह एक रोचक कथा होगी.

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

ये वो सहर तो नहीं

हिंदी कथा जगत में अपना ख़ास मुकाम बना चुके युवा रचनाकार पंकज सुबीर का प्रथम उपन्यास--ये वो सहर तो नहीं --ज्ञानपीठ से आ गया है.इस उपन्यास के लिए पंकज जी को ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार प्राप्त हुआ. साहित्य जगत से जुड़े लोग तो पढेंगे ही लेकिन पत्रकार साथियों तथा आई.ए.एस अधिकारियों को इसे जरूर पढना चाहिए.पंकज भाई ने व्यंग्य का तड़का लगते हुए शिवपालगंज की याद दिला दी.देखें किस खूबी से एक शहर नहीं देश के अधिकांश हिस्से की बात कही है--विरोध यहाँ की जनता कभी भी नहीं करती है.नल में पानी नहीं आता है तो ट्यूबवेल लगवा लेती है.वो भी सूख जाता है तो हेंडपंप से पानी भर लाती है.हेंडपंप भी नहीं मिलता तो टेंकर से पानी खरीद कर डलवा लेती है लेकिन कभी किसी से ये नहीं पूछती कि हुजूर,हमारे हिस्से का पानी गया कहाँ ?


अधिकाँश लोग पीपली लाइव को याद करते हुए इस बात से सहमत होंगे... ये नए ज़माने की इलेक्ट्रोनिक मीडिया की पत्रकारिता है.उसमें आप नहीं काम करते,आपका कैमरा करता है.प्रधानमंत्री सड़क योजना के अंतर्गत बनी किसी भी सड़क की वीडिओ शूटिंग कर लाये.सड़क के गड्ढे और उसकी दुर्दशा पर चार ग्रामीणों की बाईट ले ली.उसके बाद वहीं खड़े होकर एक पीटूसी किया और वर्शन लेने पहुँच गए सम्बन्धित अधिकारी के पास ! यह जो सड़क बनने के कुछ ही दिनों बाद इतनी ख़राब हो गयी,इसको लेकर आप क्या एक्शन ले रहे हैं.बातों ही बातों में उस अधिकारी को वीडिओ फूटेज दिखा दिए...जैसे ही आप अधिकारी के पास से उठेंगे वह तुरंत ठेकेदार को फोन लगाकर सब कुछ बता देगा.उसके बाद होगा यह कि वह ग्रामीण,वह सड़क टीवी के पर्दे पर आने की हसरत दिल में लिए ही रह जाएँगे.चैनल पत्रकार का सड़क के गड्ढे देखने का नजरिया क्रांतिकारी रूप से बदल चुका होगा.

पंकज जी ने सीधे सपाट शब्दों में सच्चाई बयां कर दी...इस समय तक प्रदेश स्तर पर ही करीब ३० समाचार चैनल कार्य कर रहे थे.कुछ तो ऐसे थे कि जिनके कैमरामेन और संवाददाता चैनल का लोगो लगे माइक के साथ फील्ड में तो खूब दिखाई देते थे,लेकिन इन समाचार चैनलों को आजतक किसी ने टीवी पर नहीं देखा था....इन समाचार चैनलों ने बड़े स्तर पर प्रदेश भर में अपने संवाददाताओं की नियुक्ति कर रखी थी.नियुक्ति के लिए दो शर्तें थी.पहली तो यह कि संवाददाता के पास अपना स्वयं का कैमरा तथा कैमरामेन हो.दूसरी महत्वपूर्ण शर्त यह थी कि संवाददाता को हर माह दस हज़ार रुपये के विज्ञापन अपने चैनल को देने होते थे.इसमें से भी विज्ञापन शब्द हटा दें तो दस हज़ार रुपये हर माह चैनल के ऑफिस में जमा करवाने होते थे.प्रदेश के कई आबकारी ठेकेदारों,माफियाओं,नेताओं ने इसी स्कीम के तहत किसी न किसी चैनल की आईडी ले रखी थी.