गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

संगीत से रोशन कर रहे दुनिया

इब्राहीम अली कक्षा में छात्राओं के साथ
प्रारब्ध ने रोशनी से मोहताज कर जिनके जीवन में अंधेरा भर दिया वे जब अपने साथ-साथ दूसरों के जीवन में रंग भरते हैं तो वे न सिर्फ नियति को चुनौती देते हैं बल्कि समाज को भी एक नई राह बताते हैं। ऐसे ही जीवट लोग उज्जैन में अनुकरणीय उदाहरण पेश कर रहे हैं जिनकी आँखों से रोशनी तो छिन गई लेकिन उन्होंने संगीत जगत को रोशन करने का महती कार्य अपने हाथ में लिया।
उज्जैन के कालिदास कन्या महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक (संगीत)के पद पर कार्य कर रहे ४८ वर्षीय  डॉ.इब्राहीम अली बोहरा समाज से ताल्लुक रखते हैं और उनके परिवार का दूर-दूर तक संगीत से कोई वास्ता नहीं था। जब उनके चिकित्सक पिता डॉ.कासिम अली ने पाया कि उनका पुत्र जन्म से ही आँखों की ऐसी बीमारी से पीड़ित है जिससे वह धीरे-धीरे अपनी पूरी रोशनी खो देगा तो उन्होंने उसे संगीत जगत में जाने के लिए प्रेरित किया। नतीजा यह कि डॉ.इब्राहीम अली आज न सिर्फ संगीत में पीएच.डी. कर चुके हैं बल्कि दो विद्यार्थियों को पीएच.डी.करा चुके हैं और पाँच विद्यार्थी उनके मार्गदशन में पीएच.डी.कर रहे हैं। डॉ.कासिम अली कहते हैं ''मैंने बचपन में ही झूठी दिलासा देने के स्थान पर अपने बेटे को स्पष्ट बताया कि तुम्हारे सामने चुनौती है और तुम्हें इससे जूझना होगा। जब उसने संगीत की ओर अपना रुझान जाहिर किया तो मैंने उसे संगीत को बतौर कैरियर अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया।'' उज्जैन स्थित संगीत महाविद्यालय में १९७८ में प्रवेश लेकर डॉ.इब्राहीम अली ने सुर साधना आरंभ किया और १९८१ में महाविद्यालय के श्रेष्ठ विद्यार्थी आंके गए। उन्होंने १९८५ में इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से कंठ संगीत में स्नातकोत्तर उपाधि मंच प्रदर्शन  में विशेष योग्यता के साथ प्राप्त की। हालांकि वे सुगम संगीत के क्षेत्र में जाना चाहते थे और उसमें ही निष्णात होने के लिए शास्त्रीय संगीत सीख रहे थे लेकिन इस दौरान ही उनका झुकाव शास्त्रीय संगीत की ओर हो गया। वे उस्ताद अमीर खाँ की गायकी से प्रभावित थे इसलिए उनकी ही परंपरा के गायक पद्‌मश्री गोकुलोत्सवजी महाराज के शिष्य बन गए। सीखने की ललक इतनी कि सप्ताह में दो दिन उज्जैन से ५६ किमी दूर इन्दौर जाते थे। डॉ.इब्राहीम अली बताते हैं ''१९८८ में संगीत महाविद्यालय में ही पढ़ाने लगा, कई आयोजनों में गायन भी करने लगा और साथ ही साथ शोध कार्य भी आरंभ कर दिया।'' १९९३ में खयात संगीत शास्त्री डॉ.प्यारेलाल श्रीमाल के मार्गदर्शन  में उन्होंने पद्‌मभूषण उस्ताद अमीर खाँ के व्यक्तित्व और कृतित्व पर पीएच.डी.की और फिर म.प्र.लोक सेवा आयोग से चयनित होकर कालिदास कन्या महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक नियुक्त किए गए। डॉ.श्रीमाल कहते हैं ''इब्राहीम अली में मैंने विलक्षण प्रतिभा देखी और साथ ही साथ काफी मेहनती व्यक्ति भी। उनकी दृष्टिहीनता के कारण आरंभ में मुझे झिझक थी लेकिन उनकी लगन देखकर मैं उन्हें मार्गदर्शन  देने को तैयार हो गया।'' डॉ.अली कहते हैं ''मेरा आरंभ से ही यह मानना रहा है कि शारीरिक चुनौती का सामना करने के लिए अतिरिक्त प्रयास आवश्यक हैं और वैकल्पिक साधनों से इस पर काबू पाया जा सकता है।'' इसीलिए उन्होंने शुरु से ही वैकल्पिक साधन अपनाते हुए पहले ब्रेल लिपि सीखी,विक्रम विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में अंग्रेजी और संगीत में विशेष योग्यता के साथ बीए किया और २००४ से स्क्रीन रीडिंग साफ्‌टवेयर की मदद से वे कम्प्यूटर का बखूबी प्रयोग करते हैं। २००५ में उन्हें केन्द्र सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की ओर से अत्यन्त कुशल विकलांग कर्मचारी के रुप में राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुआ। उनकी एक विद्यार्थी पवित्रा कुशवाह कहती हैं ''वे संगीत ही नहीं सभी विषयों पर,सभी मुद्‌दों पर मार्गदर्शन देते हैं।'' नतीजा यह कि आज वे अनेक दृष्टिहीनों के लिए प्रेरणास्त्रोत बन चुके हैं।


अर्चना मिश्र
डॉ.अली से प्रेरणा पाकर ही ४४ वर्षीया कला साधिका अर्चना मिश्र उनसे कम्प्यूटर चलाना सीख रही हैं जो डॉ.अली की तरह ही दृष्टिहीनता की शिकार हैं। हालांकि जन्म से उनकी केवल एक आँख कमजोर थी और चिकित्सकों का कहना था कि १३-१४ वर्ष की अवस्था में ऑपरेशन कर यह ठीक की जा सकती है लेकिन दुर्भाग्य से उनकी दूसरी आँख की रोशनी भी जाती रही। जुझारू अर्चना ने नियति के समक्ष हार नहीं मानी और पहले एक वर्ष कथक का अभ्यास किया फिर १९८५ से गायन की ओर मुड़ गईं। इससे ही आज वे अपने पैरों पर खड़ी  हैं। प्रयाग संगीत समिति से पहले कंठ संगीत और फिर तबले में प्रभाकर करने के उपरांत उन्होंने संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ  से गायन में प्रावीण्य सूची में दूसरा स्थान पाते हुए स्नातक किया, फिर स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। ब्रेल लिपि सीखकर इंदिरा गांधी खुला विश्वविद्यालय से बीए किया और एक विद्यालय में संगीत शिक्षिका बन गईं। १९९९ में मप्र शासन के सामाजिक न्याय विभाग के अंतर्गत कलापथक दल में उनका चयन हो गया और अध्यापन छूट गया लेकिन आज भी जब-जब अन्य शहरों के दौरों के बीच उन्हें समय मिलता है वे विद्यार्थियों को मार्गदर्शन देने को उत्सुक रहती हैं। अर्चना अपने स्वर्गीय पिता कमलेश  मिश्र को अपनी उपलब्धियों का श्रेय देते हुए कहती हैं '' मेरी पहली पदस्थापना ६० किमी दूर शाजापुर में हुई थी और मैं रोज आना-जाना करती थी। तब पिताजी ने मुझमें आत्मविश्वास भरा और माँ श्रीमती इन्दु मिश्र ने समाज से लडना सीखाया।'' उनके भाई सुदीप मिश्र कहते हैं ''वे नई चुनौतियों को पसंद करती हैं और जब कोई उन्हें विकलांग मानकर हतोत्साहित करता है और उनकी क्षमताओं पर संदेह जाहिर करता है तो वे अपने कार्य से माकूल जवाब देती हैं।''
सुनील दुबे
लोगों द्वारा हतोत्साहित किए जाने पर सभी दृष्टिहीन अर्चना जैसा जवाब नहीं दे पाते। ३० वर्षीय दृष्टिहीन गोपाल रईकवाल कहते हैं ''मुख्य समस्या यह मानसिकता है कि  जो कार्य कई सामान्य लोग नहीं कर सकते उस कार्य को कोई दृष्टिहीन कैसे कर सकता है।'' कई बार निराश  हो जाने वाले मूल रुप से सीहोर के रहवासी जन्मांध रईकवाल एक मजदूर पिता की संतान हैं। उन्होंने इन्दौर स्थित दृष्टिहीन बच्चों के विद्यालय में संगीत सीखना आरंभ किया और इस कदर रुचि बढ़ी कि सीहोर लौटने पर गुरु ढूंढने लगे। मुबारक खां के रुप में उन्हें उस्ताद मिले और उनसे सीखते हुए रईकवाल ने प्रयाग संगीत समिति से प्रभाकर किया। वर्ष २००६ में प्रसिद्ध मैहर बेण्ड में नौकरी मिली और २००९ में उज्जैन के माधव संगीत महाविद्यालय में आ गए। अध्यापन के साथ-साथ वे संगीत में स्नातकोत्तर की तैयारी कर रहे हैं। खयात शास्त्रीय गायक पं.सुधाकर देवले से वे इन दिनों गायन की बारीकियां सीख रहे हैं। पं.देवले कहते हैं ''शारीरिक चुनौतियों के बावजूद ये कक्षा में नियमित आते हैं और लगन से सीखते हैं। हालांकि मैं जानबूझकर अन्य विद्यार्थियों में और इनमें कोई भेद नहीं करता क्योंकि सहानुभूति के पात्र बनाने से इनका आत्मविश्वास कम होता जाएगा।''राजनीति शास्त्र में एमए कर चुके रईकवाल 'ऐतबार सीहोरी' के नाम से गजल भी लिखते हैं और स्वयं ही धुन बनाकर गाते भी हैं।
पं.देवले से ही गायन सीखने वाले ५० वर्षीय सुनील दुबे शासकीय कन्या विद्यालय में तबले के शिक्षक  हैं और बचपन में टेबल और रसोई के डिब्बे बजाने के कारण उनके उप पंजीयक पिता ने उन्हें खयात तबला वादक और संगीत महाविद्यालय में शिक्षक पं नृसिंह दास महन्त के पास भेजा। तब सुनील की आँखें सही-सलामत थीं। संगीत महाविद्यालय से १९८३ में तबले में मध्यमा के बाद वे नौकरी में आकर तबला शिक्षक हो गए और तालिम वहीं रुक गई। उसके बाद नियति ने अपना खेल दिखाया और उनकी दोनों आँखों की दृष्टि धीरे-धीरे चली गई। पुनः अध्ययन आरंभ करते हुए उन्होंने प्रयाग संगीत समिति से तबले में प्रभाकर किया और फिर कंठ संगीत की ओर आकर्षित हुए। अपनी पत्नी कल्याणी दुबे द्वारा सहयोग और प्रोत्साहन दिए जाने के बाद मानसिंह तोमर संगीत विश्वविद्यालय ग्वालियर से गायन में ही संगीत कोविद(स्नातकोत्तर के समकक्ष) किया। पं.देवले कहते हैं '' आर्थिक चुनौतियां होते हुए भी ऑटो रिकशा  द्वारा प्रतिदिन कक्षा में आना संगीत के प्रति समर्पण ही सिद्ध करता है।''

ऐसा ही समर्पण २९ वर्षीया खेमलता मर्सकाले में दिखाई देता है जो जन्म के चार-पांच वर्षों बाद अपनी दृष्टि खो बैठी। दृष्टिहीनों के संस्थान में संगीत के प्रति रुचि हुई और जबलपुर के एक कारखाने में सुरक्षाकर्मी रहे पिता से प्रोत्साहन मिलने पर खेमलता ने इसे ही भविष्य बना लिया। खेमलता संगीत में स्नातक करने के बाद उज्जैन के माधव संगीत महाविद्यालय में अध्यापन के लिए चुन ली गईं और अब वे साथ-साथ स्नातकोत्तर हेतु अध्ययन भी कर रही हैं।
ये सभी दृष्टिहीन अकेल आने-जाने में अक्षमता जैसी अनेक परेशानियों के बावजूद अपने कार्य से समाज के सामने उदाहरण पेश कर रहे हैं लेकिन इनकी शिकाय त है कि समाज इनकी काबिलियत पर संदेह तो करता ही है। डॉ.अली कहते हैं ''हम आत्मविश्वास से लबरेज हैं फिर भी समाज हमें कमतर आंकता है,हमारी कमी को हमारी पहचान मानता है न कि हमारे सकारात्मक पक्ष को। वह हम पर विश्वास देर से करता है और हमें अपने पक्ष में माहौल बनाने में वक्त लगता है। इससे कई बार निराशा होती है। '' इनमें महिलाओं के सामने तो दोहरी चुनौती होती है,एक दृष्टिहीनता और दूसरी महिला होना लेकिन जैसा कि अर्चना मिश्र कहती हैं ''हतोत्साहित करने वाले हैं तो सहायता करने वाले भी बहुत हैं।'' समाज के एक तबके के इसी समर्थन से ये सफलता की नई इबारत लिख रहे हैं और अपने जैसे अन्य दृष्टिहीनों में नया उत्साह भर रहे हैं।

उक्त आलेख सम्पादित होकर इंडिया टुडे के १९ जनवरी २०११ के अंक में प्रकाशित हुआ है...