रविवार, 23 अक्तूबर 2011

क्लिनिकल ट्रायल

मध्‍यप्रदेश: मेडिकल कॉलेजों की बिगड़ी सेहत

shameful activities in temple of education

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बेटी बचाओ आंदोलन: निकले बेटी बचाने: इंडिया टुडे: आज तक

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आरटीआई: उनकी जान की आफत जानकारी

सोमवार, 21 मार्च 2011

मासूमों की मण्डी


दूधमुहीं बच्चियों से छीन लिया माँ का आँचल

     बीते ९ मार्च को मध्यप्रदेश  के मंदसौर जिले की मल्हारगढ़ पुलिस ने मानव तस्करी के एक बड़े  मामले का खुलासा करते हुए दो महिलाओं सहित १४ लोगों को गिरफ्तार कर ७ बालिकाओं को वेश्यावृत्ति करने वाले बांछडा  डेरों से मुक्त कराया तो स्थानीय लोगों को खास आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि अरसे से इलाके में बालिकाओं की खरीद-फरोख्त की खबरें थीं .यह ऐसा 'सीक्रेट' था जिसे आम नागरिक भी जानता था इसलिए पुलिस ने जब लगातार कार्रवाई करते हुए सप्ताह भर में ८ अन्य बालिकाओं को भी मुक्त कराया और कुल २४ आरोपियों में से ५ महिलाओं सहित १९ को गिरफ्तार किया तो उसकी सक्रियता पर ताज्जुब करते हुए समाज के हर तबके ने इसकी सराहना की. 
राजस्थान सीमा से लगा यह क्षेत्र देशभर में वेश्यावृत्ति के लिए बदनाम है. मध्यप्रदेश के धार जिले से राजस्थान के अजमेर तक जाने वाले राजमार्ग का एक बड़ा हिस्सा रतलाम,मंदसौर और नीमच होकर गुजरता है जहाँ पारम्परिक रुप से वेश्यावृत्ति करने वाले बांछडा जाति के लोग रहते हैं . विगत वर्षों में पारंपरिक देह व्यापार में लिप्त लोगों ने कार्यप्रणाली बदली और बडी संख्या में बाहरी लडकियों को यहां लाया जाने लगा.बचपन बचाओ आंदोलन के प्रदेश  समन्वयक एडवोकेट राघवेन्द्र सिंह तोमर कहते हैं ''लम्बे समय से हम लगातार पुलिस-प्रशासन का ध्यान आकर्षित कर सूचना दे रहे थे कि क्षेत्र में राजस्थान तथा मध्यप्रदेश के अन्य जिलों से लडकियों को लाकर देह व्यापार में धकेला जा रहा है.यहां तक कि मुख्यमंत्री को भी पत्र लिखे गए. "लेकिन २-३ वर्षों में इन पत्रों का कुछ असर नहीं दिखाई दिया . 

पत्र लिखकर प्रशासन को चेताया था तोमर ने

पिछले माह ही प्रदेश  के भोपाल,होशंगाबाद,इन्दौर,जबलपुर,रीवा,सागर और ग्वालियर के साथ-साथ मंदसौर जिले में मानव तस्करी विरोधी इकाई (एंटी ह्‌यूमन ट्रेफिकिंग सेल) स्थापित की गई. पुलिस ने एक मुखबीर से सूचना मिलने पर लड़कियों की खरीद-फरोख्त में लिप्त दलालों को हिरासत में लिया तो उन्होंने जानकारी उगलनी शुरु कर दी. इसके बाद पुलिस ने बांछडा डेरों पर छापेमारी की तो वहां इन्दौर और खरगोन से अपहरण की गई लडकियां पाई गईं. अधिकांश लडकियां इतनी छोटी थी कि वे अपना नाम-पता भी ठीक से नहीं बता सकीं. इन्हें २० से ५० हजार रुपए में बेचा गया था.लड़कियों की खरीद-फरोखत करने वाले इतने शातिर हैं कि उन्होंने बेहद गरीब और मजदूर वर्ग की लडकियों को ही अपना निशाना बनाया और कम उम्र लडकियों को उठाने में उन्हें ज्यादा परेशानी का सामना भी नहीं करना पडा.महज चॉकलेट अथवा कचोरी के लालच में वे साथ आ गई और नशीले खाद्य पदार्थ से काबू में आ गई. कुछ दुधमुंही बच्चियों को तो रेलवे स्टेशन और बस स्टेण्ड से उडाया गया जहां उनकी मां की नींद लग गई थी .तोमर कहते हैं ''आरोपियों की सोच थी कि गरीब माँ-बाप अपनी बच्चियों की खोज में ज्यादा कुछ नहीं कर सकते और पुलिस भी उनके मामलों में ज्यादा ध्यान नहीं देती. कम उम्र की बच्चियां कुछ समय बाद ही अपने माँ-बाप को भूलकर खरीददार को ही माँ-बाप समझने लगती. इसलिए उन्हें ही निशाना बनाया गया.''


पुलिस अधीक्षक पाठक..सराहनीय भूमिका
 इस खुलासे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले जिला पुलिस अधीक्षक डॉ.जी.के.पाठक कहते हैं ''एक गोपनीय सर्वेक्षण कराया गया तो पता चला लड़कियां की संख्या तो बढ  रही है लेकिन महिलाएं गर्भवती नहीं हो रहीं. इसका कारण अर्थशास्त्र में छिपा है क्योंकि बांछडा महिला गर्भधारण कर एक साल तक देह व्यापार से दूर रहने में अपना लाखों का नुकसान देखने लगी और लडकी खरीदना उन्हें सस्ता विकल्प लगा.''बताया जाता है कि लड़कियों के खरीददार इन्हें १२-१३ वर्ष की अवस्था में ही दवाइयों के माध्यम से यौवन प्रदान करते हैं और इन्हें देह व्यापार में धकेल देते हैं. बांछडा  समुदाय के ज्यादातर पुरूष  आलसी और मक्कार होते हैं तथा वे मेहनत नहीं करना चाहते इसलिए महिलाओं से देह व्यापार इन्हें आसान तरीका लगता है. सामाजिक कार्यकर्ता एवं दशपुर अभिव्यक्ति नामक गैर सरकारी संगठन चलाने वाले वेदप्रकाश  मिश्र बताते हैं ''इनमें से कई जरायमपेशा  होते हैं,कच्ची शराब के धंधे में भी ये लिप्त होते हैं इसलिए इनके संपर्क समाज के कई सफेदपोशो  से होते हैं जिनका संरक्षण इन्हें मिला होता है.'' संभवतः यही कारण है कि अनैतिक देह व्यापार निरोधक अधिनियम के होते हुए भी बीते वर्षों  में कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं हुई.नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े देखें तो पुलिस की कार्यप्रणाली स्पष्ट  हो जाएगी.वर्ष २०१० में मध्यप्रदेश  में वेश्यावृत्ति के लिए महिलाओं की खरीद-फरोख्त के कुल ७ मामले दर्ज हुए जिनमें से इन्दौर में दो, रीवा, पन्ना, दतिया, गुना और टीकमगढ  में एक-एक मामले थे. वर्ष २००९ में कुल ९ मामले खरीद-फरोख्त के दर्ज हुए जिनमें ग्वालियर और हरदा में दो-दो,मुरैना में तीन तथा जबलपुर,डिंडोरी में एक-एक मामले थे. खरीद-फरोख्त के बडे केन्द्र मंदसौर-नीमच में एक भी मामला सामने नहीं आया. क्षेत्र के एक रसूखदार व्यक्ति नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं ''पुलिस के लिए ये आमदनी का बहुत बडा जरिया है,उसकी सांठगांठ के बगैर ये कैसे संभव है. पुलिसकर्मियों की नियुक्ति और पदस्थापना का आधार ही डेरों की संखया और उसके अनुपात में धनराशी होती है''बाहरी लड़कियों को लाए जाने का कारण बताते हुए हालांकि एक बांछडा युवा उमेश चौहान कहते हैं ''बाहरी लडकियों को लाए जाने के पीछे ज्यादा आमदनी का लालच तो है ही लेकिन डेरों की आपसी प्रतिस्पर्द्धा भी है. जिसके पास ज्यादा सुन्दर लडकियां वहां ग्राहकों की ज्यादा आमद''.लेकिन क्षेत्र में इस तरह की सूचनाएं हैं कि बाहरी लडकियों को केवल क्षेत्र में देह व्यापार के लिए नहीं लाया जाता बल्कि उन्हें महानगरों में बेच दिया जाता है। यहां तक कि कुछ लडकियां अरब देशों  में भी भेजी गई हैं. इस पर पुलिस अधीक्षक पाठक कहते हैं ''इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता हालांकि ऐसे सबूत अभी नहीं मिले हैं.'' बाहरी लडकियों को लाए जाने की प्रवृत्ति के साथ ही ये भी देखने में आया कि बाहरी लोग आकर बांछडा डेरों में घुलमिल गए ताकि वे भी बेधडक देह व्यापार कर सकें। वोटों की राजनीति ने सभी प्रमुख दलों के मुंह बंद कर दिए और वे इसे स्वीकार्य सामाजिक अभिशाप मान बैठे। क्षेत्र में वर्षों से राजनीति कर रहे एक नेता कहते हैं ''अनेक लोगों के हित इससे जुड़े हैं,कई धन्ना सेठ शौक़ीन  हैं तो ऐसे में ज्यादा कुछ कह नहीं सकते.'' मीनाक्षी नटराजन मंदसौर-नीमच क्षेत्र की सांसद हैं...लेकिन उन्होंने मामले के खुलासे के बाद कोई सक्रियता नहीं दिखाई..जब उनसे फ़ोन पर बात करने की कोशिश की गयी तो उन्होंने सकपका कर कहा कि वे अभी यात्रा कर रही हैं ..कल बात करेंगी.अगले दिन नपे-तुले २० सेकंड में कहा मानव तस्करी पर रोक लगाकर इसे पूरी तरह बंद किया जाना चाहिए...जो समुदाय इसमें  हैं उसे मुख्य धारा में लाकर सामाजिक सशक्तीकरण  करना चाहिए....फिर जब तक उनसे सवाल किया जाता उन्होंने फ़ोन काट दिया..मध्य प्रदेश के आदिम जाति तथा अनुसूचित जाति कल्याण राज्य मंत्री हरि शंकर खटिक १० तारीख को उजागर मामले के बारे में १७ तारीख को कहते हैं.."कब हुआ...मुझे नहीं पता...मैं अभी विधानसभा से आरहा हूँ...पता लगाता हूँ..."जब उन्हें बताया गया कि मामला एक सप्ताह पुराना हो गया है और हम जानना चाहते है कि भविष्य में ऐसा न हो इसलिए सरकार क्या कदम उठा रही है तो वे विस्तार से मामला बताने का आग्रह कराते हुए बोले..अभी मंदसौर एसपी से बात करके बताता हूँ....        रतलाम-झाबुआ क्षेत्र के सांसद और केन्द्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया ने कहा---ऐसा करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए..ये दलाल होते हैं जो छोटी बच्चियों को व्यापार करने वालों के हवाले करते हैं..इन्हें कड़ी सजा मिलनी चाहिए...ये बहुत गलत है...हम इसकी विस्तृत रिपोर्ट मांगेंगे..और ये कैसे बंद हो इसका रास्ता तो निकलना ही होगा....पता कर रहा हूँ कि कौन-कौन सी योजना इनके लिए चल रही है,उन्हें कौन देख रहा है..उपयोग-दुरूपयोग तो नहीं हो रहा देखेंगे....
हकीकत ये है कि कोई भी समुदाय की आर्थिक मजबूरी समझने की बात नहीं कहता और न ही शैक्षिक उन्नति और उन्हें रोजगारोन्मुख किए जाने की बात गंभीरता से करता है. न ही शासन-प्रशासन इस मौके पर कोई दूरगामी परिणाम वाली योजना बना रहा है। प्रदेश के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री सुभाष सोजतिया कहते हैं ''मुख्यमंत्री तो प्रदेश की सभी लाडलियों के मामा हैं,क्या उन्हें इनके उत्थान के लिए कोई अच्छी योजना नहीं बनानी चाहिए ?''

बहरहाल आज भी राजमार्ग से गुजरने वाले वाहनों के सामने हाथ के इशारे से ग्राहक बुलाती युवतियां दिखाई देना आम बात है. जगह-जगह ट्रक खड़े दिखाई देने से स्पष्ट होता है कि व्यापार जोरों पर है. ऐसे में बाहरी लोगों के लिए बेहद आश्चर्य का विषय  है कि ये सब खुले आम कैसे चल रहा है ? मिश्र कहते हैं ''ऐसा लगता है कि पुलिस-प्रशासन यह मान चुका है कि बांछडा डेरे बंद किए जाना संभव नहीं है, ये यूं ही चलते रहेंगे.'' मिश्र की आशंका  निर्मूल नहीं कही जा सकती क्योंकि पुलिस अधीक्षक भी कहते हैंकि हम लोगों का घरों में रहना तो बंद नहीं करा सकते। वैसे करीब ११ वर्ष पहले प्रशासन ने बडी कार्रवाई करते हुए वेश्यावृत्ति में संलिप्त बांछडा  डेरे बंद करा दिए थे और देह व्यापार करने वाली महिलाओं को साफ कहा था कि या तो जेल जाओ अथवा शादी कर घर बसाओ और देह व्यापार बंद कर दो.दर्जनों युवतियों ने अपने प्रेमियों से अथवा प्रशासन द्वारा सुझाए गए व्यक्तियों से शादी कर ली किन्तु न केवल क्षेत्र में देह व्यापार फिर शुरु हो गया बल्कि शादी कर चुकी अनेक युवतियां भी इसमें लौट आई. देखना यह है कि पुलिस समग्रता से कार्रवाई करते हुए डेरों में चल रहा देह व्यापार बंद कराती है अथवा मुहिम बाहरी लडकियों की बरामदगी तक ही सीमित रहती है.
इस विशेष रपट को संपादन के बाद इंडिया टुडे हिंदी के ३० मार्च के अंक में प्रकाशित किया गया है...रपट के शीर्षक"मासूमों की मण्डी " के लिए मैं अपने मित्र सुधीर गोरे का आभारी हूँ...

                      गुप्तचर बन दुश्मन के शयनकक्ष तक जाती थीं महिलाएं


ग्राहक बुलाते हुए अचानक केमरे को देख मुह छिपाती युवतियां

मध्यप्रदेश में अनुसूचित जाति के रुप में दर्ज बांछड़ा समुदाय मुख्य रुप से मंदसौर, नीमच, रतलाम, उज्जैन, इन्दौर और शाजापुर जिले में फैला है। २००१ की जनगणना के अनुसार इनकी कुल आबादी २३,९५१ थी जिनमें ११,७९७ पुरुष  और १२,१५४ महिलाएं थीं। २३,०९५ लोग गांव में ही निवास करते थे और मात्र ८५६ ने अपना ठिकाना शहर में बनाया। कुल ९,५८५ लोग साक्षर थे और ११,५८२ लोग बेरोजगार। देह व्यापार में संलग्न बांछडा डेरे मंदसौर,नीमच और रतलाम जिले की जावरा तहसील में फैले हैं जहां करीब ७५ डेरों में लगभग १० हजार बांछडा रहते हैं। मंदसौर सबसे बडा केन्द्र है जहाँ ३९ गाँवों में बांछडा देह व्यापार में संलग्न हैं, नीमच जिले में करीब २४ डेरे हैं जबकि रतलाम जिले में १२। करीब १६०० से ज्यादा महिलाएं देह व्यापार में सक्रिय हैं। अन्य जिलों के बांछडा अपने को इस धंधे से अलग बताते हैं और ग्लानिवश वे अपनी पहचान भी छिपाते हैं।इस समुदाय की उत्पत्ति को लेकर कुछ स्पष्ट नहीं है। जहाँ समुदाय के कुछ लोग अपने को राजपूत बताते हैं जो राजवंश के इतने वफादार थे कि इन्होंने दुश्मनों के राज जानने के लिए अपनी महिलाओं को गुप्तचर बनाकर वेश्या  के रुप में भेजने में भी संकोच नहीं किया। वहीं कुछ लोगों का कहना है कि करीब १५० वर्ष  पूर्व अंग्रेज इन्हें नीमच में तैनात अपने सिपाहियों की वासनापूर्ति के लिए राजस्थान से लाए थे।नटनागर शोध संस्थान सीतामऊ के निदेशक डॉक्टर मनोहर राणावत बताते हैं कि बांछड़ा समुदाय के बारे में कोई लिखित ऐतिहासिक तथ्य तो नहीं है लेकिन मुग़ल काल में भी सेना के साथ -साथ डेरे चला कराते थे जो सैनिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति कराते थे..ये किसी जाति विशेष के नहीं होते थे.... इसी तरह अंग्रेज सेना के लिए डेरों का चलन हुआ और ये नीमच आ गए... राजपूत होने की बात पर इन्हें संदेह है....इसमें दो राय नहीं है कि ये राजस्थान के खानाबदोश लोग थे जो मुख्य रुप से राजस्थान-मध्यप्रदेश की सीमा पर बस गए और आसानी से पैसा कमाने के लिए देह व्यापार को अपना लिया। पहले यह कहा जाता था कि परिवार की बड़ी बेटी परंपरानुसार देह व्यापार अपनाती है जबकि अन्य लडकियों का विवाह कर दिया जाता था। इसके लिए बचपन में ही लडकी का रिश्ता तय कर दिया जाता था जिससे सभी को यह बात साफ हो जाती थी कि उक्त लडकी देह व्यापार में नहीं आएगी किन्तु कालान्तर में अधिक धन के लालच में परिवार की अन्य लडकियों को भी देह व्यापार में धकेला जाने लगा। इसके लिए बचपन में रिश्ता  तय न कर विकल्प खुला रखा जाने लगा। इससे ऐसा भी हुआ कि देह व्यापार में लिप्त लडकी को पूर्ण स्वतंत्र और रसूखदार देख अन्य लडकियों को भी देह व्यापार अपनाने का मन हुआ। शादीशुदा महिला देह व्यापार नहीं करती हैं और यदि ऐसा पाया जाता है तो समुदाय की पंचायत द्वारा भारी दण्ड आरोपित किए जाने का प्रावधान है। हालांकि राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक ७९ पर अनेक शादीशुदा नज़र आती महिलाएं ग्राहकों को आमंत्रित करती दिखाई देती हैं। इस पर समाज के एक बुजुर्ग रामचन्द्र बांछडा कहते हैं ''खिलवाड़ी (देह व्यापार में लिप्त अविवाहित लडकी) को भी लालसा होती है कि वह शादीशुदा की तरह रहे,कोई तो हो जिसे वह अपना मान सके इसलिए किसी नियमित ग्राहक जो उसका अतिरिक्त ध्यान रखता है,के नाम का सिंदूर लगाकर मंगलसूत्र गले में डाल लेती हैं। ''


इज्ज़त की जिन्दगी के लिए संघर्ष

      दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज, फिर भी दूर देह व्यापार से



मंदसौर जिला मुख्यालय से करीब १८ किलोमीटर दूर ग्राम कोलवा में रहने वाले ३० वर्षीय  सुन्दर चौहान बांछड़ा समुदाय के चन्द सुशिक्षित युवकों में से हैं। कला स्नातक (बीए) चौहान समाज कार्य में स्नातकोत्तर उपाधि (एमएसडब्ल्यू) प्राप्त करने के लिए अंतिम वर्ष की परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं। समाज कार्य से प्रत्यक्ष रुप से जुडे होने के बावजूद ये परीक्षा उनके लिए आसान नहीं है क्योंकि अपनी २५ वर्षीया  पत्नी और दो बच्चों के निर्वाह के लिए भी उन्हें जूझना पड ता है। दूसरों शब्दों  में वे जीविका उपार्जन की कहीं अधिक कठिन परीक्षा का सामना कर रहे हैं। हालांकि एक बांछडा होने के नाते उनके पास अपने समुदाय के अन्य पुरुषों की तरह सहज विकल्प था वेश्यालय चलाने का। इसके लिए उन्हें पहले अपनी बहन और फिर अपनी बेटी को देह व्यापार में धकेलना था जैसा अधिकांश बांछडा  पुरुष रते हैं,किन्तु यह प्रवृति चौहान को रास नहीं आई और वे इसे ठुकराकर जीवन संग्राम में कूद पडे। वे कहते हैं ''बचपन में बुआ को देह व्यापार करते देखा और फिर उन्हें गर्भाशय के कैंसर से तडपते भी देखा इसलिए इस पारंपरिक कार्य को अपनाने का मन नहीं हुआ। हालांकि अन्य लोगों की तरह ५-७ लडकियां रखने पर रुखी-सूखी से गुजारा नहीं करना पडता लेकिन आज हम नमक-रोटी में ही खुश हैं।''
एक गैर सरकारी संगठन से जुड़े चौहान बमुश्किल  तीन हजार रुपए प्रति माह अर्जित कर पाते हैं। यह नौकरी उन्हें अपनी शिक्षा के कारण नहीं बल्कि बांछडा समुदाय से होने के कारण मिली है क्योंकि एड्‌स के खतरे के प्रति आगाह करने वाली परियोजना विशेषरूप से देह व्यापार में लिप्त बांछडा महिलाओं के लिए ही चलाई जा रही है और चौहान के बांछडा होने से इसके सहज क्रियान्वयन की संभावना थी। इससे पूर्व एक अन्य परियोजना में अपने समुदाय के बच्चों को पढाने का कार्य उन्होंने किया। वहां उनकी मुलाकात बांछडा समुदाय की लाली से हुई जो उनकी तरह ही नियति से जूझ रही थी। रतलाम जिले की जावरा तहसील में पीपलिया जोधा गांव में देह व्यापार में लिप्त माँ की तीसरी संतान लाली की दोनों बडी बहनें भी देह व्यापार में संलिप्त थीं और उनकी माँ लाली को भी उसमें ही धकेलना चाहती थीं किन्तु वे लगातार इस बात का विरोध करती थीं। जिद करके वे स्कूल गईं और कक्षा आठ तक पढाई की। बांछडा बच्चों को पढाने के लिए यह योग्यता काफी थी इसलिए लाली भी उक्त परियोजना से जुड  गई। सुन्दर से मुलाकात के बाद उन्हें रोशनी की किरण नजर आई और माँ-बहन के पुरजोर विरोध के बावजूद उन्होंने शादी कर ली। लाली कहती हैं ''बचपन से ही गाँव में भेदभाव किया जाता था और स्कूल में तो अलग बैठाया जाता था इसलिए सोच लिया था कि अपने को ऐसा खोटा काम नहीं करना है जिसमें इज्जत जाए। '' उन्हें दो वक्त की रोटी बमुश्किल नसीब होती है क्योंकि नई परियोजना में काम के लिए उनकी शेक्षणिक योग्यता कम थी इसलिए वे घर पर बैठी हैं। वे ओपन स्कूल से कक्षा १० उत्तीर्ण कर चुकी हैं और अब कक्षा १२ की परीक्षा की तैयारी कर रही हैं लेकिन उनके सामने भी कहीं ज्यादा कठिन परीक्षा की घडी है।  उन्हें अपनी बहनों के सामने देह व्यापार में न जाने के अपने निर्णय को सही सिद्ध करना है क्योंकि आज दोनों बहनें ताने देते हुए कहती हैं ''शादी करके तुझे क्या मिला, रुखी-सूखी ? ''लाली का जवाब होता है ''मुझे सुकून मिला कि मेरा पति मुझे कमाकर खिला रहा है।''
                                   
                                       बेदम शासकीय योजनाएं


बांछड़ा और उनकी तरह ही देह व्यापार करने वाली प्रदेश  के १६ जिलों में फैली बेडिया,कंजर तथा सांसी जाति की महिलाओं को वेश्यावृत्ति से दूर करने के लिए शासन ने १९९२ में जाबालि योजना की शुरुआत की। इस योजना के तहत समुदाय के छोटे बच्चों को दूषित  माहौल से दूर रखने के लिए छात्रावास का प्रस्ताव था। किशोरावस्था की लडकियों के लिए स्वरोजगार स्थापित करने में मददगार साबित होने वाले प्रशिक्षण की दरकार थी किन्तु दो दशक से ज्यादा समय तक चलने के बावजूद इस योजना का कोई लाभ नहीं दिखाई दिया। गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से चलाई जाने वाली इस योजना के माध्यम से वेश्यावृत्ति उन्मूलन का शासन का लक्ष्य दिवास्वप्न साबित हुआ क्योंकि इन संगठनों ने जमीनी कार्य नहीं किया। मंदसौर क्षेत्र में तो विगत पाँच-छः वर्षों से योजना के लिए आवंटित राशि  का उपयोग ही नहीं हो पा रहा है। जिले की महिला एवं बाल विकास अधिकारी रेलम बघेल कहती हैं ''इस योजना में कार्य करने के लिए कोई गैर सरकारी संगठन आगे नहीं आ रहा है क्योंकि शासन ने छात्रावास के लिए एनजीओ पर ही जिम्मेदारी डाली है। साथ ही इस क्षेत्र में तीन वर्ष का अनुभव आवश्यक  है जो कि स्थानीय एनजीओ के पास नहीं है। ''
हालात ये हैं कि प्रति वर्ष आवंटित राशि समर्पित किए जाने के कारण जिले के लिए अब आवंटन ही घटकर मात्र एक लाख रु. हो गया है जिसका अधिकांश हिस्सा प्रचार-प्रसार के नाम पर खर्च कर दिया जाता है। रतलाम जिले के लिए दो लाख रु.और नीमच के लिए साढ़े चार लाख रु. से ज्यादा आवंटित किए गए हैं। वैसे पूर्व में बांछडा बच्चों को दूषित माहौल से दूर रखने के लिए छात्रावास भेजा गया लेकिन प्रयास असफल रहा क्योंकि पालक अपने बच्चों के साथ अपने समाज का ही देखभाल करने वाला (केयरटेकर)तैनात करने जैसी शर्तें रखते थे।


एक्शन एड नामक गैर सरकारी संगठन विगत एक दशक से बांछडा महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए कार्य कर रहा है जिसे रतलाम,मंदसौर और नीमच के लिए सालाना २५ लाख रु.के लगभग विदेशी सहायता मिलती है किन्तु इसकी गतिविधियां भी मैदान में नजर नहीं आती। हालांकि दावा किया जाता है कि मैदानी कार्यकर्ताओं के वेतन पर ही ७-८ लाख रु.प्रति वर्ष खर्च होते हैं। परियोजना समन्वयक कल्पना खन्ना कहती हैं ''हम शिविर लगाते हैं,बच्चों को स्कूल जाने के लिए प्रेरित करते हैं और युवतियों को व्यवसायिक प्रशिक्षण की ओर उन्मुख करते हैं।'' एक दशक पूर्व एक्शन एड के  'गरिमा कार्यक्रम ' के जिला समन्वयक रहे नरेन्द्र सिंह अरोरा कहते हैं ''एक्शन एड का लक्ष्य कभी भी देह व्यापार बंद कराना नहीं रहा। सशक्तीकरण के नाम पर ये कागजों तक ही सीमित रह गया। इससे ४ गांव भी साक्षर नहीं बनाए जा सके।'' फिलहाल इनके द्वारा भोर परियोजना चलाई जा रही है और साथ ही महिला एवं बाल विकास विभाग इनसे नुक्कड नाटक करा लेता है और भुगतान कर देता है।
जिला प्रशासन ने निर्मल अभियान के अंतर्गत एक दशक पूर्व बांछड़ा युवतियों के सामूहिक विवाह कराए लेकिन वे असफल सिद्ध हुए। बांछडा युवतियों से विवाह करने वाले कुछ तो ड्रायवर थे जो भ्रमण ही करते रहते थे। कुछ छोटे-मोटे काम करने वाले अन्य युवक थे जो शासकीय मदद की आस में थे किन्तु वह समय पर मिली नहीं। वैसे एक अन्य पहलू भी सामने आता है जब समाज के एक वरिष्ठ  नागरिक कहते हैं ''हमारी लडकियां जन्मजात ही चतुर होती हैं इसलिए विवाह के बाद वे किसी तरह आपने पति को प्यार का वास्ता देकर वापस आ जाती हैं और अपना धंधा संभाल लेती हैं। पति को भी आशवासन देती हैं कि वे उनकी ही हैं और जब वे चाहे उनके पास आ सकते हैं।'' महिलाओं को सिलाई मशीन वितरण जैसी मदद दी गई किन्तु इससे उनकी आजीविका की व्यवस्था नहीं हो सकी। समाज के एक युवा कहते हैं ''देह व्यापार में लिप्त महिलाओं को मदद की बात होती है लेकिन जरुरत तो देह व्यापार न करने वाले लोगों को है क्योंकि गरीबी से तो वे ही जूझ रहे हैं।

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

संगीत से रोशन कर रहे दुनिया

इब्राहीम अली कक्षा में छात्राओं के साथ
प्रारब्ध ने रोशनी से मोहताज कर जिनके जीवन में अंधेरा भर दिया वे जब अपने साथ-साथ दूसरों के जीवन में रंग भरते हैं तो वे न सिर्फ नियति को चुनौती देते हैं बल्कि समाज को भी एक नई राह बताते हैं। ऐसे ही जीवट लोग उज्जैन में अनुकरणीय उदाहरण पेश कर रहे हैं जिनकी आँखों से रोशनी तो छिन गई लेकिन उन्होंने संगीत जगत को रोशन करने का महती कार्य अपने हाथ में लिया।
उज्जैन के कालिदास कन्या महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक (संगीत)के पद पर कार्य कर रहे ४८ वर्षीय  डॉ.इब्राहीम अली बोहरा समाज से ताल्लुक रखते हैं और उनके परिवार का दूर-दूर तक संगीत से कोई वास्ता नहीं था। जब उनके चिकित्सक पिता डॉ.कासिम अली ने पाया कि उनका पुत्र जन्म से ही आँखों की ऐसी बीमारी से पीड़ित है जिससे वह धीरे-धीरे अपनी पूरी रोशनी खो देगा तो उन्होंने उसे संगीत जगत में जाने के लिए प्रेरित किया। नतीजा यह कि डॉ.इब्राहीम अली आज न सिर्फ संगीत में पीएच.डी. कर चुके हैं बल्कि दो विद्यार्थियों को पीएच.डी.करा चुके हैं और पाँच विद्यार्थी उनके मार्गदशन में पीएच.डी.कर रहे हैं। डॉ.कासिम अली कहते हैं ''मैंने बचपन में ही झूठी दिलासा देने के स्थान पर अपने बेटे को स्पष्ट बताया कि तुम्हारे सामने चुनौती है और तुम्हें इससे जूझना होगा। जब उसने संगीत की ओर अपना रुझान जाहिर किया तो मैंने उसे संगीत को बतौर कैरियर अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया।'' उज्जैन स्थित संगीत महाविद्यालय में १९७८ में प्रवेश लेकर डॉ.इब्राहीम अली ने सुर साधना आरंभ किया और १९८१ में महाविद्यालय के श्रेष्ठ विद्यार्थी आंके गए। उन्होंने १९८५ में इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से कंठ संगीत में स्नातकोत्तर उपाधि मंच प्रदर्शन  में विशेष योग्यता के साथ प्राप्त की। हालांकि वे सुगम संगीत के क्षेत्र में जाना चाहते थे और उसमें ही निष्णात होने के लिए शास्त्रीय संगीत सीख रहे थे लेकिन इस दौरान ही उनका झुकाव शास्त्रीय संगीत की ओर हो गया। वे उस्ताद अमीर खाँ की गायकी से प्रभावित थे इसलिए उनकी ही परंपरा के गायक पद्‌मश्री गोकुलोत्सवजी महाराज के शिष्य बन गए। सीखने की ललक इतनी कि सप्ताह में दो दिन उज्जैन से ५६ किमी दूर इन्दौर जाते थे। डॉ.इब्राहीम अली बताते हैं ''१९८८ में संगीत महाविद्यालय में ही पढ़ाने लगा, कई आयोजनों में गायन भी करने लगा और साथ ही साथ शोध कार्य भी आरंभ कर दिया।'' १९९३ में खयात संगीत शास्त्री डॉ.प्यारेलाल श्रीमाल के मार्गदर्शन  में उन्होंने पद्‌मभूषण उस्ताद अमीर खाँ के व्यक्तित्व और कृतित्व पर पीएच.डी.की और फिर म.प्र.लोक सेवा आयोग से चयनित होकर कालिदास कन्या महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक नियुक्त किए गए। डॉ.श्रीमाल कहते हैं ''इब्राहीम अली में मैंने विलक्षण प्रतिभा देखी और साथ ही साथ काफी मेहनती व्यक्ति भी। उनकी दृष्टिहीनता के कारण आरंभ में मुझे झिझक थी लेकिन उनकी लगन देखकर मैं उन्हें मार्गदर्शन  देने को तैयार हो गया।'' डॉ.अली कहते हैं ''मेरा आरंभ से ही यह मानना रहा है कि शारीरिक चुनौती का सामना करने के लिए अतिरिक्त प्रयास आवश्यक हैं और वैकल्पिक साधनों से इस पर काबू पाया जा सकता है।'' इसीलिए उन्होंने शुरु से ही वैकल्पिक साधन अपनाते हुए पहले ब्रेल लिपि सीखी,विक्रम विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में अंग्रेजी और संगीत में विशेष योग्यता के साथ बीए किया और २००४ से स्क्रीन रीडिंग साफ्‌टवेयर की मदद से वे कम्प्यूटर का बखूबी प्रयोग करते हैं। २००५ में उन्हें केन्द्र सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की ओर से अत्यन्त कुशल विकलांग कर्मचारी के रुप में राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुआ। उनकी एक विद्यार्थी पवित्रा कुशवाह कहती हैं ''वे संगीत ही नहीं सभी विषयों पर,सभी मुद्‌दों पर मार्गदर्शन देते हैं।'' नतीजा यह कि आज वे अनेक दृष्टिहीनों के लिए प्रेरणास्त्रोत बन चुके हैं।


अर्चना मिश्र
डॉ.अली से प्रेरणा पाकर ही ४४ वर्षीया कला साधिका अर्चना मिश्र उनसे कम्प्यूटर चलाना सीख रही हैं जो डॉ.अली की तरह ही दृष्टिहीनता की शिकार हैं। हालांकि जन्म से उनकी केवल एक आँख कमजोर थी और चिकित्सकों का कहना था कि १३-१४ वर्ष की अवस्था में ऑपरेशन कर यह ठीक की जा सकती है लेकिन दुर्भाग्य से उनकी दूसरी आँख की रोशनी भी जाती रही। जुझारू अर्चना ने नियति के समक्ष हार नहीं मानी और पहले एक वर्ष कथक का अभ्यास किया फिर १९८५ से गायन की ओर मुड़ गईं। इससे ही आज वे अपने पैरों पर खड़ी  हैं। प्रयाग संगीत समिति से पहले कंठ संगीत और फिर तबले में प्रभाकर करने के उपरांत उन्होंने संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ  से गायन में प्रावीण्य सूची में दूसरा स्थान पाते हुए स्नातक किया, फिर स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। ब्रेल लिपि सीखकर इंदिरा गांधी खुला विश्वविद्यालय से बीए किया और एक विद्यालय में संगीत शिक्षिका बन गईं। १९९९ में मप्र शासन के सामाजिक न्याय विभाग के अंतर्गत कलापथक दल में उनका चयन हो गया और अध्यापन छूट गया लेकिन आज भी जब-जब अन्य शहरों के दौरों के बीच उन्हें समय मिलता है वे विद्यार्थियों को मार्गदर्शन देने को उत्सुक रहती हैं। अर्चना अपने स्वर्गीय पिता कमलेश  मिश्र को अपनी उपलब्धियों का श्रेय देते हुए कहती हैं '' मेरी पहली पदस्थापना ६० किमी दूर शाजापुर में हुई थी और मैं रोज आना-जाना करती थी। तब पिताजी ने मुझमें आत्मविश्वास भरा और माँ श्रीमती इन्दु मिश्र ने समाज से लडना सीखाया।'' उनके भाई सुदीप मिश्र कहते हैं ''वे नई चुनौतियों को पसंद करती हैं और जब कोई उन्हें विकलांग मानकर हतोत्साहित करता है और उनकी क्षमताओं पर संदेह जाहिर करता है तो वे अपने कार्य से माकूल जवाब देती हैं।''
सुनील दुबे
लोगों द्वारा हतोत्साहित किए जाने पर सभी दृष्टिहीन अर्चना जैसा जवाब नहीं दे पाते। ३० वर्षीय दृष्टिहीन गोपाल रईकवाल कहते हैं ''मुख्य समस्या यह मानसिकता है कि  जो कार्य कई सामान्य लोग नहीं कर सकते उस कार्य को कोई दृष्टिहीन कैसे कर सकता है।'' कई बार निराश  हो जाने वाले मूल रुप से सीहोर के रहवासी जन्मांध रईकवाल एक मजदूर पिता की संतान हैं। उन्होंने इन्दौर स्थित दृष्टिहीन बच्चों के विद्यालय में संगीत सीखना आरंभ किया और इस कदर रुचि बढ़ी कि सीहोर लौटने पर गुरु ढूंढने लगे। मुबारक खां के रुप में उन्हें उस्ताद मिले और उनसे सीखते हुए रईकवाल ने प्रयाग संगीत समिति से प्रभाकर किया। वर्ष २००६ में प्रसिद्ध मैहर बेण्ड में नौकरी मिली और २००९ में उज्जैन के माधव संगीत महाविद्यालय में आ गए। अध्यापन के साथ-साथ वे संगीत में स्नातकोत्तर की तैयारी कर रहे हैं। खयात शास्त्रीय गायक पं.सुधाकर देवले से वे इन दिनों गायन की बारीकियां सीख रहे हैं। पं.देवले कहते हैं ''शारीरिक चुनौतियों के बावजूद ये कक्षा में नियमित आते हैं और लगन से सीखते हैं। हालांकि मैं जानबूझकर अन्य विद्यार्थियों में और इनमें कोई भेद नहीं करता क्योंकि सहानुभूति के पात्र बनाने से इनका आत्मविश्वास कम होता जाएगा।''राजनीति शास्त्र में एमए कर चुके रईकवाल 'ऐतबार सीहोरी' के नाम से गजल भी लिखते हैं और स्वयं ही धुन बनाकर गाते भी हैं।
पं.देवले से ही गायन सीखने वाले ५० वर्षीय सुनील दुबे शासकीय कन्या विद्यालय में तबले के शिक्षक  हैं और बचपन में टेबल और रसोई के डिब्बे बजाने के कारण उनके उप पंजीयक पिता ने उन्हें खयात तबला वादक और संगीत महाविद्यालय में शिक्षक पं नृसिंह दास महन्त के पास भेजा। तब सुनील की आँखें सही-सलामत थीं। संगीत महाविद्यालय से १९८३ में तबले में मध्यमा के बाद वे नौकरी में आकर तबला शिक्षक हो गए और तालिम वहीं रुक गई। उसके बाद नियति ने अपना खेल दिखाया और उनकी दोनों आँखों की दृष्टि धीरे-धीरे चली गई। पुनः अध्ययन आरंभ करते हुए उन्होंने प्रयाग संगीत समिति से तबले में प्रभाकर किया और फिर कंठ संगीत की ओर आकर्षित हुए। अपनी पत्नी कल्याणी दुबे द्वारा सहयोग और प्रोत्साहन दिए जाने के बाद मानसिंह तोमर संगीत विश्वविद्यालय ग्वालियर से गायन में ही संगीत कोविद(स्नातकोत्तर के समकक्ष) किया। पं.देवले कहते हैं '' आर्थिक चुनौतियां होते हुए भी ऑटो रिकशा  द्वारा प्रतिदिन कक्षा में आना संगीत के प्रति समर्पण ही सिद्ध करता है।''

ऐसा ही समर्पण २९ वर्षीया खेमलता मर्सकाले में दिखाई देता है जो जन्म के चार-पांच वर्षों बाद अपनी दृष्टि खो बैठी। दृष्टिहीनों के संस्थान में संगीत के प्रति रुचि हुई और जबलपुर के एक कारखाने में सुरक्षाकर्मी रहे पिता से प्रोत्साहन मिलने पर खेमलता ने इसे ही भविष्य बना लिया। खेमलता संगीत में स्नातक करने के बाद उज्जैन के माधव संगीत महाविद्यालय में अध्यापन के लिए चुन ली गईं और अब वे साथ-साथ स्नातकोत्तर हेतु अध्ययन भी कर रही हैं।
ये सभी दृष्टिहीन अकेल आने-जाने में अक्षमता जैसी अनेक परेशानियों के बावजूद अपने कार्य से समाज के सामने उदाहरण पेश कर रहे हैं लेकिन इनकी शिकाय त है कि समाज इनकी काबिलियत पर संदेह तो करता ही है। डॉ.अली कहते हैं ''हम आत्मविश्वास से लबरेज हैं फिर भी समाज हमें कमतर आंकता है,हमारी कमी को हमारी पहचान मानता है न कि हमारे सकारात्मक पक्ष को। वह हम पर विश्वास देर से करता है और हमें अपने पक्ष में माहौल बनाने में वक्त लगता है। इससे कई बार निराशा होती है। '' इनमें महिलाओं के सामने तो दोहरी चुनौती होती है,एक दृष्टिहीनता और दूसरी महिला होना लेकिन जैसा कि अर्चना मिश्र कहती हैं ''हतोत्साहित करने वाले हैं तो सहायता करने वाले भी बहुत हैं।'' समाज के एक तबके के इसी समर्थन से ये सफलता की नई इबारत लिख रहे हैं और अपने जैसे अन्य दृष्टिहीनों में नया उत्साह भर रहे हैं।

उक्त आलेख सम्पादित होकर इंडिया टुडे के १९ जनवरी २०११ के अंक में प्रकाशित हुआ है...