मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

कठोर प्रशासक के साथ ही सहृदय व्यक्ति हैं श्रवण जी

जिन लोगों ने श्रवण गर्ग जी के साथ काम किया है अथवा जो थोड़ा भी उनके बारे में जानते हैं,उन्हें श्रवण जी की कठोर प्रशासक की छवि की जानकारी होगी लेकिन कम लोगों को पता होगा कठोर प्रशासक के साथ ही सहृदय व्यक्ति हैं श्रवण जी..सहकर्मियों का बहुत ध्यान रखने वाले व्यक्ति हैं वे.मैं देखा करता था इंदौर भास्कर कार्यालय में उनके पहुंचते ही चुप्पी छा जाती थी.गलतियों पर अनेक लोगों को उनके गुस्से का शिकार होते देखा था.इसलिए मन में डर भर गया था लेकिन अनेक अवसरों पर उनका अपनत्व भरा व्यवहार भी दिखाई पड़ता था.आरम्भ में जब मैं उज्जैन से अप-डाउन करता था तो रात ११ बजे तक मेरी ड्यूटी रहा करती थी.चूँकि कभी घड़ी देखकर न तो काम किया और न ही कुर्सी छोड़ी इसलिए अक्सर सवा ११ बजे तक ही वहां से निकलता था.वहां से बस स्टैंड ठीक ५ किमी की दूरी पर है और देर रात को मुझे कोई साधन नहीं मिलता  था.कभी पलासिया तक पैदल जाता और वहां से लिफ्ट मिलती तो कभी पूरी दूरी पैदल ही तय करता.रात १२ तक बस स्टैंड पहुंचता और फिर बस चलने का इंतजार...रोज़ २-३ बजे तक उज्जैन पहुंचता और अगली सुबह १२ बजे तक फिर इंदौर के लिए निकलना होता.एक दिन श्रवण जी ने पूछ लिया -आप यहाँ से कैसे जाते हैं.मैंने उन्हें बताया लिफ्ट मिल जाती है तो ठीक अन्यथा पैदल ही जाता हूँ.उन्होंने कहा बड़ा ही painful   है ये तो, घर कितने बजे पहुँच पाते होंगे? फिर उन्होंने कहा जब तक आप यहाँ शिफ्ट नहीं होते मेरी गाड़ी ले जाया करें.उन्होंने तुरंत ही ड्राईवर को बुलाया और कहा ये जब भी जाएँ इन्हें बस स्टैंड छोड़ दिया करो.उन दिनों उनके पास एक  FIAT हुआ करती थी जिससे मैं जाने लगा.मुझे बहुत संकोच होता था और डर भी लगता था कि कहीं वे कह न दें कि गाड़ी मिलने लगी तो शिफ्ट होने का  ख्याल ही नहीं कर रहे. इसलिए मैं कई बार गाड़ी लेकर नहीं जाता था.एक शाम जैसे ही वे कार्यालय आये उन्होंने सबके बीच मुझे कहा-कल गाड़ी क्यों नहीं ले गए?मैं सकपका गया और मुझे कोई जवाब नहीं सूझा. फिर कल्पेश याग्निक जी जो उस समय वहां कार्यकारी संपादक थे,से मुखातिब होकर बोले-मैंने इन्हें कह रखा है गाड़ी ले जाया करें फिर क्या दिक्कत है? इस तरह कई महीनों तक मैं उनकी गाड़ी से बस स्टैंड आता रहा.एक रात उन्होंने मुझसे माफ़ी मांगने-सी मुद्रा में कहा-आज आपको थोड़ी दिक्कत होगी क्योंकि गाड़ी  का सेल्फ ख़राब है.ड्राईवर यहाँ से तो धक्का लगवा कर गाड़ी स्टार्ट कर  लेगा,वहां से कैसे करेगा.मैं शर्मिंदा हुआ   जा रहा था इसलिए मैंने कहा-सर कोई परेशानी नहीं,मैं चला जाऊंगा.फिर उन्होंने विकल्प पेश करते हुए कहा ऐसा करें ड्राईवर आपको  छोड़ दे तो गाड़ी बंद मत करने देना,उसे वैसे ही रवाना कर देना.इस पर वहां मौजूद कल्पेश जी ने कहा,सर मेरी गाड़ी भेज देते हैं,आप परेशां न हों.उस समय कल्पेश जी के पास मारुती ८०० थी जो उस समय की लक्ज़री गाड़ी हुआ करती थी.श्रवण जी का ड्राईवर उससे मुझे छोड़ने बस स्टैंड आया.महत्वपूर्ण बात यह है कि उस समय मैं भास्कर का कनिष्ठतम  पत्रकार था और उप संपादक (सब एडिटर )केपद पर काम करता था.इस तरह दोनों ही वरिष्ठों ने सहकर्मियों की परेशानी को समझते हुए अक्सर मदद की. वे अनुशासनप्रिय हैं और इसलिए ही उनकी कठोर छवि बनी है.उनके साथ काम कर चुके व्यक्ति को अनुशासन का महत्व सहज ही समझ आ जाता है.खासकर तब जब वह किसी अन्य संस्थान  में काम करने लगता है. मुझे अन्य संस्थानों में काम करते हुए अ कसर  उनकी याद आती थी और कई बार खीज़ कर मैं अपने अधीनस्थों से कह उठता था- काम क्या होता है गर्ग साहब से सीखो.अन्य संस्थान ही क्यों जब मैं चंडीगढ़  में था तो इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ maas  communication से निकले अधीनस्थों को कहता था-तुम्हे तो इंदौर में  श्रवण जी के पास ट्रेनिंग के लिए भेजना चाहिए. तब समझोगे काम कैसे होता है.हालाँकि साथी पत्रकार स्वीकार करते थे कि जितना आपसे सीखने को मिल रहा है उसकी तुलना में  हमने IIMC  में कुछ  नहीं सीखा.श्रवण जी का अपनत्व ही था जो वे जब भी इंदौर से चंडीगढ़ पहुंचते थे ऐसा लगता था परिवार का कोई अपना आ गया.हमें उनके आगमन की प्रतीक्षा रहती थी हालाँकि अन्य लोग उनकी वापसी का इंतजार करते थे...