शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

महाप्राण निराला--

अपने माता - पिता के साथ इलाहाबाद महाकुम्भ में जाने का अवसर मिला। जैसे ही देखा कि मेला क्षेत्र के नजदीक ही दारागंज है,वहां जाने का अवसर ढूँढने लगा। दारागंज---महाप्राण 'निराला' से सम्बन्धित अनेक संस्मरणों में विभिन्न साहित्यकारों ने इसका जिक्र किया है। उन्हें पढ़ते हुए आँखों में इस जगह का कल्पित चित्र उभरता था लेकिन अवसर था उस मोहल्ले को प्रत्यक्ष देखने का ,उस गली से गुजरने का जिसमें 'निराला' रहा करते थे। अखिल भारतीय धर्मसंघ पण्डाल की व्यवस्था संभाल रहे मित्र सुदीप ने अपना एटीएम कार्ड देते हुए कहा कि दारागंज तक जाओ तो कुछ धन राशि निकालते आना। फिर क्या था उन्हीं के एक रिश्तेदार श्री मुकेश जी को साथ ले निकल पडा और दारागंज पहुँचत ही 'निराला' के बारे में पूछने लगा। आशंका थी कि 'निराला'के गुजरने के 50 वर्ष बाद उनके बारे में जानकारी देने वाले संभवतः अल्प लोग ही होंगे लेकिन आश्चर्य हर कोई साधिकार बात करने लगा। खैर , पूछते -पूछते वहां तक पहुंचा जहाँ 'निराला' रहा करते थे, ऐसा लगा किसी मंदिर में आ गया। मुकेश जी कुछ अस्वस्थ महसूस कर रहे थे,रक्तदाब अधिक था। मैंने उनसे आग्रह किया कि किसी स्थान पर बैठ जाएँ,मैं लौटते समय उन्हें साथ ले लूँगा लेकिन वे नहीं माने। जैसे ही 'निराला'निवास पहुंचे जैसे उनकी तबियत ठीक हो गयी। प्रफुल्लित हो कहने लगे कभी सोचा न था कि 'निराला'के घर आयेंगे ,बैठेंगे,चर्चा करेंगे। खैर,वहां से लौटकर स्मृतियों को संजोये उन्हें पंक्तिबद्ध करने का प्रयास किया लेकिन मेला क्षेत्र में नेटवर्क की समस्या रही। फिर लौटने की गहमागहमी, स्टेशन तक पहुँचने का संघर्ष और सभी गाड़ियों का घंटों देरी से चलना। कुल मिलाकर बेहद थकाने वाला उपक्रम। जैसे -तैसे कुछ लिखा क्योंकि बसंत पंचमी 'निराला' का जन्मोत्सव होता है। पढ़े और अपनी प्रतिक्रिया दें--
महाप्राण निराला--
तीर्थराज प्रयाग, अमृत की बूंदें सहेजे पवित्र गंगा-जमुना-सरस्वती का संगमस्थल, महाकुम्भ की नगरी। यहां विगत एक माह से चल रहे महाकुम्भ में करोड़ों श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ रहा है जिनमें से अनेक मेला क्षेत्र में जाते हुए भावविभोर हो जाते हैं क्योंकि रास्ते में ही दिखाई पड़ता है साहित्यिकों का तीर्थ दारागंज। एक साधुस्वभाव वाले फक्कड़ साहित्यकार की कर्मस्थली, महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला ने जहां अपने जीवन के लगभग 20 वर्ष बिताए। अद्भुत अनुभव से गुजरते हैं आप दारागंज में,मानो चप्पे-चप्पे मे ‘निराला’बसे हैं। दारागंज में ‘निराला’ का नाम लेंगे तो क्या तो पनवाड़ी और क्या रिक्शावाला सभी आपको ‘निराला’ के बारे में बताने को आतुर हो जाएंगे। किसी से भी आप ‘निराला’ निवास का पता पूछेंगे तो वह बख्शीखुर्द की उस गहरी गली में साथ चलने को उत्सुक हो जाएगा जहां प्राचीन बेनीमाधव मन्दिर से आगे,बड़ के विशाल वृक्ष के सामने ‘निराला’ रहा करते थे, जहां दद्दा मैथिलीशरण गुप्त, महादेवी वर्मा, सुमित्रानन्दन पंत, राहुल सांकृत्यायन, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय, प्रभाकर माचवे जैसे अनेक साहित्यकारों की आवाजाही थी। हालांकि खपरैल के जिस मकान में ‘निराला’ रहा करते थे, उसकी जगह दुमंजिला पक्के मकान ने ले ली है,उसमें ही रहते हैं ‘निराला’ के सबसे छोटे पौत्र अखिलेश त्रिपाठी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कार्यरत अखिलेश ने अपने पितामह ‘निराला’ को नहीं देखा,उनके जन्म से पूर्व ही ‘निराला’ ब्रह्मलीन हो गए लेकिन फिर भी अखिलेश हर पल ‘निराला’ का आशीर्वाद महसूस करते हैं। वे बताते हैं कि अपने अंतिम समय में ‘निराला’ ने अपने पुत्र रामकृष्ण से पूछा ‘‘रामकिशन तुमरे कै बच्चे हैं ?’’ रामकृष्ण ने बताया ‘‘तीन पुत्र और एक पुत्री ’’। यह सुनते ही ‘निराला’ ने कहा ‘‘नहीं,तुमरे चार बिटवा हैं।’ कुछ समय बाद ‘निराला’ का देहावसान हो गया,बाद में रामकृष्ण के चौथे पुत्र अखिलेश का जन्म हुआ। 
दारागंज के ‘निराला मार्ग’ पर थाने के कुछ पहले ही स्थापित है ‘निराला’ की आवक्ष प्रतिमा जिसके चबूतरे पर थके-हारे श्रद्धालु विश्राम कर रहे हैं। बरबस ही उनकी निगाहें ‘प्रतिमा की ओर उठ जाती हैं,साथ ही दिखाई पड़ती है ' सरोज स्मृति ' की पंक्तियां -
दुःख ही जीवन की कथा रही, 
क्या कहूं आज, जो न कही 
अनपढ़ ग्रामीण भी उस शख्स की प्रतिमा के आगे सिर झुकाते नज़र आने लगते हैं जो आरंभ में स्वयं मूर्तिपूजा का विरोधी था लेकिन स्वामी रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द के प्रभाव से उसमें जैसे सरस्वती विराजमान हो गईं और बाद में जिसने हिन्दी साहित्य जगत को ‘राम की शक्तिपूजा’ जैसी कालजयी रचना दी। अखिलेश अपने पिता से सुना हुआ किस्सा बताते हैं कि ‘निराला’ रूढ़ीवाद के इतने कट्टर विरोधी थे कि अपनी पुत्री सरोज के पाणिग्रहण संस्कार में वर-वधू को ‘रामचरित मानस’ के फेरे कराए और कहा हो गया तुम्हारा विवाह। बलिष्ठ इतने कि बीमारी के दौरान भी उन्हें अस्पताल ले जाने के लिए बेहोशी का इंजेक्शन देना पड़ा क्योंकि वे कहीं भी जाने से इन्कार कर रहे थे लेकिन इंजेक्शन का भी कोई असर उन पर नहीं हुआ । कुश्ती के शौकीन ‘निराला’ जीवनभर भाग्य से कुश्ती लड़ते रहे लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी ठीक उस तरह जिस तरह
‘एक और मन रहा राम का जो न थका;
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय ’

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